Lekhika Ranchi

Add To collaction

आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



65. युग्म युग - पुरुष : वैशाली की नगरवधू

नगर के बाहर एक यक्ष -निकेतन था । निकेतन बहुत पुराना था । उसमें विराटकाय यक्ष की प्रतिमा थी । निकेतन का अधिकांश पृथ्वीगर्भ में था और उसमें प्रवेश एक गुफा - द्वार से होता था । यक्ष - प्रतिमा काले पत्थर की थी , जो उस अंधकारपूर्ण निकेतन में प्रभावशाली प्रतीत होती थी । नगर के इस प्रांत - भाग में लोगों का आना - जाना बहुत कम होता था । कभी - कभी लोग यक्ष - पूजन के लिए आते और दीप जलाकर गुहागर्भ में प्रवेश करते थे। साधारणतया यह प्रसिद्ध था कि यक्ष के प्रकोप से मनुष्य का मस्तक कट गिरता है । इसी से इस यक्ष -निकेतन के प्रति लोगों में बड़ी भीति थी । रात्रि को इधर भूलकर भी कोई नहीं आता था ।

कुण्डनी सोम को टेढ़े-मेढ़े मार्गों से होकर यक्ष -निकेतन में ले आई । उसने दृढ़ता से सोम का हाथ पकड़कर उस अंधकारपूर्ण भयावनी गुहा में प्रवेश किया । सोम टटोल टटोलकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। गुहा के बिलकुल अंत में यक्ष -प्रतिमा की पीठ पर ढासना लगाए , दीपक के क्षीण प्रकाश में आर्य वर्षकार गंभीर मुद्रा में बैठे ताड़पत्र पर कुछ लेख लिखने में व्यस्त थे। कुण्डनी और सोम ने निकट जाकर अभिवादन किया । आर्य वर्षकार ने सिर उठाकर देखा, फिर संकेत से बैठने को कह अपना लेख पूरा किया । लेख पूरा करके उस पर उन्होंने गीली मिट्टी की अपनी मुद्रिका से मुहर लगा दी । फिर सोमप्रभ की ओर देखकर कहा - “ आयुष्मान् सोम, हम लोगों के आने के प्रथम ही सम्राट् की सेना पराजित हो गई । ”

“ सुन चुका हूं आर्य! ”सोम ने धीरे - से कहा ।

“ अभी भगवत्पाद वादरायण का संदेश मुझे मिला है, सम्राट् अब राजगृह पहुंच गए होंगे । मेरा उधर तुरन्त पहुंचना आवश्यक है, क्योंकि राजगृह पर चंडमहासेन ने अभियान किया है और मथुरा का अवन्तिवर्मन भी उनसे मिलने आ रहा है। ”किन्तु मैं निमित्त से रुका हं । समय क्या है ? ”

“ एक दण्ड रात्रि व्यतीत हुई है। ”

“ तो आयुष्मान् सोम , यह पत्र तुम यत्न से रखो और सेनापति उदायि को ढूंढ़ ढांढ़कर उन्हें दे दो । वह बिखरी हुई मागध सैन्य का संगठन कर रहे हैं । तुम उन्हें सहायता दो - “ अत्यंत गोपनीय भाव से सेना संगठित करो और अवसर पाते ही यज्ञ विध्वंस कर दो । ”

“ क्या कोसलपति के प्रति आर्य कोई विशेष आदेश देंगे ? ”

“ नहीं। परंतु यथासमय तुम करणीय करो। ”

“ राजकुमार विदूडभ ? ”

“ उसके जीवन की रक्षा होनी चाहिए, किन्तु पिता -पुत्र के विवाद से तुम लाभान्वित हो सकते हो । ”

“ जैसी आज्ञा, आर्य! ”

“ पुत्री कुण्डनी , तुझे अन्तःपुर का सब महत्त्वपूर्ण समाचार सुविदित होना चाहिए । तुम लोग नगर में छद्म वेश में रह सकते हो । हां , मल्ल बन्धुल को नष्ट कर दो । ”

“ जो आज्ञा आर्य! ”

“ और एक बात। उपालि कुम्भकार हमारा मित्र है, भूलना नहीं। ”

“ नहीं आर्य, नहीं। ”

“ तो जाओ अब , तुम्हारा कल्याण हो ! ”

दोनों ने अभिवादन कर प्रस्थान किया । वर्षकार फिर कुछ लिखने लगे। इतने ही में पदशब्द सुनकर उन्होंने खड्ग उठाया और खड़े हुए ।

किसी ने मृदु- मन्द स्वर से कहा - “ वहां कौन है ? ”

“ यदि वयस्य यौगन्धरायण हैं , तो वर्षकार स्वागत करता है। ”

“ स्वस्ति मित्र , स्वस्ति ! ”

दोनों ने अपने - अपने स्थान से आगे बढ़कर परस्पर आलिंगन किया । उस अंधकारपूर्ण गुफा में विश्व के दो अप्रतिम राजनीतिज्ञ एकत्र थे।

यौगन्धरायण ने कहा

“ मगध सम्राट् की पराजय का दायित्व मुझ पर ही है मित्र! ”

“ मैं जानता हूं , परन्तु मैं आपको दोष नहीं दे सकता । ”

“ सुनकर सुखी हुआ। कौशाम्बीपति ने केवल कलिंगसेना के कारण अभियान किया

“ किन्तु सुश्री कलिंगसेना ने प्रियदर्शी महाराज उदयन को छोड़कर विगलित यौवन प्रसेन को कैसे स्वीकार किया ? ”

“ मेरे ही कौशल से मित्र ! ”

“ तो क्या वह नहीं जानती थी कि प्रसेनजित् बूढ़ेहैं ? ”

“ क्यों नहीं ! ”

“ तो फिर महाराज उदयन ने उसका त्याग किया ? ”

“ नहीं, मैंने ही यह विवाह नहीं होने दिया । ”

“ क्यों मित्र ? ”

“ कौशाम्बी की कल्याण - कामना से । ”

“ तो क्या वयस्य यौगन्धरायण यह समझते हैं , कि गान्धरराज की मैत्री इतनी हीन है ? उससे तो सम्पूर्ण उत्तर कुरु तक महाराज उदयन का प्रभाव हो जाता। ”

“ वह तो है ही मित्र ! कौशाम्बीपति ने जब से देवासुर - संग्राम में क्रियात्मक भाग लिया है, तब से देवराज इन्द्र उन्हें परम मित्र मानता है। ”

“ सुनकर सुखी हुआ ; किन्तु कलिंगसेना के विवाह में क्या राजनीतिक बाधा थी ? ”

“ मैं अवन्तीनरेश महाराज चण्डमहासेन को क्रुद्ध नहीं करना चाहता था । आप तो जानते ही हैं कि कन्याहरण के बाद वे बड़ी कठिनाई से प्रसन्न हुए थे और मालव - मित्रता की कौशाम्बी राज्य को बड़ी आवश्यकता है मित्र ! ” था । ”

“ किन्तु कदाचित् कौशाम्बी के महामात्य यौगन्धरायण मगध - सम्राट् की प्रसन्नता की उतनी चिन्ता नहीं करते। ”

“ क्यों नहीं ! मगध के महामहिम अमात्य वर्षकार भली- भांति जानते हैं कि मागध मित्रता की प्राप्ति के लिए ही मैंने युक्तिपूर्वक देवी वासवदत्ता को छल से मृतक घोषित करके मगधनन्दिनी पद्मावती का विवाह कौशाम्बीपति से कराया था । मगध - सम्राट् की प्रसन्नता की कौशाम्बीपति को उतनी ही आवश्यकता है मित्र , जितनी मगध- सम्राट को कौशाम्बीपति की मित्रता की । ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ मित्र! आपको विदित ही होगा , इसी से असन्तुष्ट होकर अवन्तीनरेश ने मगध पर अभियान किया है । कलिंगसेना से उदयन महाराज का विवाह मगध- सम्राट् को भी अभीष्ट नहीं था । ”

यौगन्धरायण ने हंसकर कहा - “ सम्राट् को कौशाम्बीपति की गान्धार राज्य की मैत्री से पश्चिमोत्तर दिशा से भय - ही - भय है, तो मित्र , सम्राट की इस महत्त्वाकांक्षा में कौशाम्बी राज्य बाधक नहीं है । सच पूछिए तो कौशाम्बीपति को विश्वास था कि मगध अभियान कोसल राज्य के जीर्ण- शीर्ण ढांचे को अकेला ही ढहा देगा। ”

“ सो मित्र यौगन्धरायण, मागध अभियान अभी समाप्त नहीं है । अभी वर्षकार जीवित है। ”

“ वयस्य वर्षकार का प्रबल प्रताप मुझे विदित है। मुझे सुख है कि मुझे और कौशाम्बीपति को उसकी और मगध- सम्राट् की मित्रता प्राप्त है ।

“ मगध -सम्राट् सदैव कौशाम्बीपति को मित्र समझते हैं । ”

“ महाराज यह सुनकर सुखी होंगे । तो मित्र , अब स्वस्ति ! ”

“ स्वस्ति मित्र , स्वस्ति ! ”

आर्य यौगन्धरायण चले गए और उसके कुछ ही देर बाद आर्य वर्षकार गुहाद्वार से निकले। बाहर आकर उन्होंने कुछ संकेत किया । एक चर ने आकर उनके कान में धीरे - धीरे कुछ कहा। आर्य वर्षकार ने नेत्रों से संकेत प्रकट कर कहा - “ अब तुम अपने कार्य में लगो सौम्य ! मेरा अश्व तैयार है ? ”

“ जी हां आर्य! ”

“ ठीक है। ”वे उत्तरीय से शरीर को अच्छी तरह लपेट एक ओर को चल दिए ।

   1
0 Comments